Wednesday 8 March 2017

रात होते-प्रात होते / अज्ञेय

प्रात होते –
सबल पंखों की मीठी एक चोट से
अनुगता मुझ को बना कर बावली को –
जान कर मैं अनुगता हूँ –
उस विदा के विरह के विच्छेद के तीखे निमिष में भी
श्रुता (?) हूँ –
उड़ गया वह पंछी बावला
पंछी सुनहला
कर प्रहर्षित देह की रोमावली को:
प्रात होते
वही जो
थके पंखों को समेटे –
आसरे की माँग पर विश्वास की चादर लपेटे –
चञ्चु की उन्मुख विकलता के सहारे
नम रही ग्रीवा उठाये –
सिहरता-सा, काँपता-सा,
नीड़ की-नीड़स्थ की सब कुछ की प्रतीक्षा भाँपता-सा,
निकट अपनों के निकटतर भवितव्य की अपनी प्रतीज्ञा के
निकटतम इस वि-बुध सपनों की सखी के
आ गया था
आ गया था
रात होते?

~ रात होते-प्रात होते / अज्ञेय

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