अरी ओ आत्मा री,
कन्या भोली क्वाँरी
महाशून्य के साथ भाँवरें तेरी रची गयीं।
अब से तेरा कर एक वही गह पाएगा-
सम्भ्रम-अवगुंठित अंगों को
उस का ही मृदुतर कौतूहल
प्रकाश की किरण छुआएगा।
तुझ से रहस्य की बात निभृत में
एक वही कर पाएगा तू उतना, वैसा समझेगी वह जैसा जो समझाएगा।
तेरा वह प्राप्य, वरद कर उस का तुझ पर जो बरसाएगा।
उद्देश्य, उसे जो भावे; लक्ष्य, वही जिस ओर मोड़ दे वह-
तेरा पथ मुड़-मुड़ कर सीधा उस तक ही जाएगा।
तू अपनी भी उतनी ही होगी जितना वह अपनाएगा।
ओ आत्मा री तू गयी वरी
महाशून्य के साथ भाँवरें तेरी रची गयीं।
हाँ, छूट चला यह घर, उपवन
परिचित-परिगण, मैं भी, आत्मीय सभी,
पर खेद न कर, हम थे इतने तक के अपने-
हम रचे ही गये थे यथार्थ आधे, आधे सपने-
आँखों भर कर ले फेर, और भर अंजलि दे बिखेर
पीछे को फूल
-स्मरण के, श्रद्धा के, कृतज्ञता के, सब के
हम नहीं पूछते, जो हो, बस मत हो परिताप कभी।
जा आत्मा, जा कन्या-वधुका-उस की अनुगा,
वह महाशून्य ही अब तेरा पथ, लक्ष्य, अन्न-जल, पालक, पति,
आलोक, धर्म: तुझ को वह एकमात्र सरसाएगा।
ओ आत्मा री तू गयी वरी,
ओ सम्पृक्ता, ओ परिणीता:
महाशून्य के साथ भाँवरें तेरी रची गयीं।
~ चक्रान्त शिला – 12 / अज्ञेय
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