वह दूर
शिखर
यह सम्मुख
सरसी
वहाँ दल के दल बादल
यहाँ सिहरते
कमल
वह तुम। मैं
यह मैं। तुम
यह एक मेघ की बढ़ती लेखा
आप्त सकल अनुराग, व्यक्त;
वह हटती धुँधलाती क्षिति-रेखा:
सन्धि-सन्धि में बसा
विकल निःसीम विरह।
बिनसर, सितम्बर, 1972
~ नन्दा देवी-4 / अज्ञेय
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