Saturday 11 March 2017

चक्रान्त शिला – 7 / अज्ञेय

हवा कहीं से उठी, बही-
ऊपर ही ऊपर चली गयी।
पथ सोया ही रहा
किनारे के क्षुप चौंके नहीं

न काँपी डाल, न पत्ती कोई दरकी।
अंग लगी लघु ओस-बूँद भी एक न ढरकी।
वन-खंडी में सधे खड़े पर
अपनी ऊँचाई में खोये-से चीड़
जाग कर सिहर उठे सनसना गये।

एक स्वर नाम वही अनजाना
साथ हवा के गा गये।
ऊपर ही ऊपर जो हवा ने गाया
देवदारु ने दुहराया,
जो हिमचोटियों पर झलका,

जो साँझ के आकाश से छलका-वह किस ने पाया
जिस ने आयत्त करने की आकांक्षा का हाथ बढ़ाया?
आह! वह तो मेरे दे दिये गये हृदय में उतरा,
मेरे स्वीकारी आँसू में ढलका:

वह अनजाना अनपहचाना ही आया।
वह इन सब के-और मेरे-माध्यम से
अपने में अपने को लाया, अपने में समाया।

~ चक्रान्त शिला – 7 / अज्ञेय

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