Thursday 9 March 2017

अंगूर-बेल / अज्ञेय

उलझती बाँह-सी
दुबली लता अंगूर की।
क्षितिज धुँधला।
तीर-सी यह याद
कितनी दूर की।

~ अंगूर-बेल / अज्ञेय

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