Saturday 11 March 2017

उमस में / अजित कुमार

मई की उमस में
अपने छोटे से कमरे की
खिड़की और दरवाजों को दिन भर
मजबूती से बन्द रखा मैंने
ताकि लू कि चपेट में ना आ जाऊँ!

शाम होते ही खिड़की पर
मोटा परदा फैला दिया,
कहीं मच्छर न घुस आएँ
पूरे शहर में दहशत है --
जो बच निकले डेंगू से,
वे मलेरिया में धरे गए।

फिर खाट पर मसहरी के दम-घोंटू माहौल में
जब पल भर को आँख
सपने में उभरी --
वे बचपन की सुनहरी सुबहें
जब पिता की उँगली पकड़
मैं जाता था ग्वाले के यहाँ
भैंस का धारोष्ण दूध
पीने

वहाँ ऊपर तक भरे हुए गिलास के झाग में
कोई फँसी हुई मक्खी
यदि सरक भी जाती थी कभी पेट के भीतर
पीठ थप-थपाकर पिता कहते थे
'कोई हिज्र नहीं।
वो तुम्हारा हाजमा ठीक रखेगी।'

इसे याद कर आज मैं भले ही मुस्कराया पर
मसहरी और परदों और खिड़िकयों के पल्लों को
न जाने क्यों
तब भी
मैं नहीं खोल पाया।

~ उमस में / अजित कुमार

समुद्र का जबड़ा / अजित कुमार

एक बहुत बड़े काले समुद्र के जबड़े ने
जब मुझे सहसा धर दबोचा
कुछ इस तरह कि
मुक्ति की प्रार्थना तक
होंठों में भिंची रह गई
ऊपर उठे हाथों की उँगलियाँ ही केवल
सतह पर छटपटा रही थीं

किसी ने उन्हें थामा
फिर मुझे धीरे-धीरे उबार लिया।

अरे, यह तो वही मुर्ग़ाबी है
आकाश में मंथर गति से तैरते जिसे देख
पिता ने बंदूक का निशाना पहले साधा तो था
फिर कुछ सोच उसे परे कर दिया था

शायद कहा होगा मैंने
उनके साथ घन्नई में बैठ झील को पार करते-
'ना, इसे मारो नहीं, पापा!'

वही आ पहुँची इस क्षण
मेरे प्राणों को बचाने,
जबकि भूल तक चुका हूँ मैं
वह हरिल था कि सारस कि क्रौंच कि मुर्गाबी?

केवल पंखों की फड़फड़ाहट
मन में,
प्राण में
बसी है।

~ समुद्र का जबड़ा / अजित कुमार

सभी / अजित कुमार

मुँह पे झुर्री
हाथ पे झुर्री
पैर में फटी बिवाई

पीर कमर में
नीर नज़र में
कुछ ना पड़े दिखाई

केवल गलियारे से जाते
हँसते, गाते और बतियाते
एक बहन, एक भाई

पीछे-पीछे उनकी ताई

कहाँ की झुर्री
कहाँ बिवाई!
अरे, सब ही तो
पड़े दिखाई

बहन, भाई
बापू और माई।

~ सभी / अजित कुमार

शहर के बीच / अजित कुमार

शहर के बीचोबीच
जो एक बड़ा-सा फ़व्वारा है
जिसके इर्द-गिर्द
खूबसूरत बाग़ीचा है
वहाँ-वहाँ बिछी हैं
आरामदेह बेंचें

आराम भी करो
नज़ारा भी देखो-
संगीत की लय पर
आर्केस्ट्रा के संग
उछलती-कूदती रंगीन रोशनियाँ
शीतल जल की फुहारें

इंद्रजाल में
सबके सब मुग्ध-मोहित से फँसे थे

तभी सरपत के वन में
पिंडली तक लथ-पथ कीचड़ से
कास के फूल चुनता
एक नन्हा शैतान
खिलखिलाता नज़र आया।

~ शहर के बीच / अजित कुमार

नीम बेहोशी में / अजित कुमार

एक उजली-सी नागिन
धीमे-धीमे फुफकारती
मेरे आगे लहराती रही
फिर उसने मुझे अपनी गुंजलक में घेरा
और आख़िरकार डस लिया।

दम तोड़ने से पहले की नीम बेहोशी में
बचपन के घर का आँगन मुझे याद आया

स्कूल से लौटा हूँ-
एड़ी में फँसा हुआ चूड़ीदार पाजामा
उतारने की कोशिश में
मुझे घसीटता है छोटू
चकरघिन्नी की तरह पूरे आँगन में
खिलखलाहटों से मुझे भरता

तभी आई थी
खूसट वह बड़दंती बुढ़िया-
- एक चुड़ैल
जिसे देखते ही
डर से चीख़ मैं कोठरी में जा छिपा था।

कितना अजीब है कि
नागिन के ज़हर के असर में
मेरे शैशव की डाइन वह
आज मुझे
लगभग अप्सरा-सी लगी।

और उसने मुझे जिलाया।

~ नीम बेहोशी में / अजित कुमार

कविता जी / अजित कुमार

कल मैंने कविता को लिखा नहीं
कल मैंने कविता को जिया

बहुत दिनों बाद
लौटकर घर आए बच्चों के साथ
बैट-बाल खेला,
पहेलियाँ बूझीं
कहानियाँ सुनीं-सुनाई
चाट खाई

वह सब तो ठीक था
और
अपनी जगह ठीक-ठाक रहा
लेकिन यह ख़याल
कि इस तरह
मैंने कविता को जिया,
अपनी कविता जी को
कुछ ख़ास पसंद नहीं आया।

मुँह फुलाकर वे जा बैठीं
पुरानी पत्रिकाओं के ग़ट्ठर में
जिन्हें मैंने दो-छत्ती में धर दिया था
ताकि बच्चों की उछल-कूद के लिए
घर में तनिक जगह तो निकले।

बीते अनुभव से जानता हूँ-
छुट्टियाँ ख़त्म होंगी
बच्चे वापस चले जाएँगे
घोंसले में फैले तिनके समेटने के लिए
हमें छोड़कर

कैरम की गोटें
स्क्रैबिल के अक्षर
देने-पावने के ब्यौरे
क्रेन की बैटरी
जिन्हें हम सहेजेंगे ज़रूर

पर दो-छत्ती में रखी
पुरानी पत्रिकाएँ तो शायद
हमेशा के लिए
वहीं की वहीं रह जाएँगी

रूठी हुई कविता जी
मनुहार के बाद
या
उसके बावजूद
क्या पता?
आएँ कि न आएँ!

~ कविता जी / अजित कुमार

झुनझुने से अनहद नाद तक / अजित कुमार

जब पूरे देश भर में
"पावर आन, इंडिया आन" का झुनझुना बज रहा था,
प्रगति मैदान में
"नैनो रन्स, इंडिया रन्स" का शानदार नारा भी बुलन्द हुआ...
इस लखटकिया ब्यूटी की एक झलक पाने को
उमड़े हुजूम ने तमाम सड़कें जाम कर दीं।

एक सपना अलस्सुबह मेरी आँखों में कौंधा...
महानगर से जान बचा अपने घर वापस आया हूँ–
माता-पिता-परिवार के बीच दो-चार दिन चैन से बिताने–
जो पलक झपकते गुज़रे...

वह शाम भी आ गई
जब प्रतीक्षा लंबी हो चली–
पिताजी अपनी सैर से लौटें
ताकि रात की ट्रेन पकड़
अपने को फिर से भट्ठी में झोंकने के लिए
मैं उनसे विदा मांगूँ...

कौन जाने उस बिलंब से उपजी आशंका ही 
दु:स्वप्न बनकर उभर आई--
क्या देखता हूँ-
कोई अजनबी उनका शव ठेले में लादे घर के आगे खड़ा है... 

उधर तो रोवा-रोहट मच गई
इधर उचट गई नींद के भीतर
एक और दु:स्वप्न झकझोरने लगा मुझ को–

वहाँ तो वतन में दो-चार जने कन्धा देने के लिए जुट ही जाते ज़रूर-
यहाँ परदेस की अफ़रातफ़री में भला किसे फुरसत होगी-
मुझ-जैसे बूढे़ खूसट की फूँक-ताप के लिए अपना पूरा दिन गँवाये?
मरघट तक पहुँचाने वाली तमाम सड़कें भी तो जाम होंगी।

तब से एक दूसरा ही झुनझुना मेरे कान में बज रहा है-   
भट्ठी जाम।
राहें जाम।
चक्का जाम।
मेन आफ़।
सब आफ़...

नहीं जानता, अनहद नाद यह कैसे थमेगा?
'नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि' और
'फ़ानी है दुनिया' के छोरों से टकरा
सुनामी की लहर बनता।

कोई बताए तो–
सपनों को ‘नाइटमेयर’ बन जाने से क्योंकर हम बचाएँ?

~ झुनझुने से अनहद नाद तक / अजित कुमार

प्रश्नोत्तर / अजित कुमार

सलाह तो यह थी कि
दिन भर जो प्रश्न तुम्हें उलझाए रखें,
उन्हें डाल दो मन के अतल गह्वर में,
अगली सुबह सरल उत्तर मिल जाएंगे।

पर एक बार जब इसे मैंने आज़माना चाहा,
अक्खी रात इधर से उधर,
फिर उधर से इधर करवट काटते ही बीती...

फिर पूरा दिन हम घोड़े बेचकर सोए-
क्या पता–
जीवन की समस्याओं का उत्तर यही हो?

~ प्रश्नोत्तर / अजित कुमार

मेरी माँ / अजित कुमार

वे हर मंदिर के पट पर अर्घ्य चढ़ाती थीं
तो भी कहती थीं-
'भगवान एक पर मेरा है।'
इतने वर्षों की मेरी उलझन
अभी तक तो सुलझी नहीं कि-
था यदि वह कोई तो आख़िर कौन था?

रहस्यवादी अमूर्तन? कि
छायावादी विडंबना? आत्मगोपन?
या विरुद्धों के बीच सामंजस्य बिठाने का
यत्न करता एक चतुर कथन?

'प्राण, तुम दूर भी, प्राण तुम पास भी!
प्राण तुम मुक्ति भी, प्राण तुम पाश भी।'
उस युग के कवियों की
यही तो परिचित मुद्रा थी
जिसे बाद की पीढ़ी ने
शब्द-जाल भर बता खारिज कर दिया...!

कौन जाने,
मारा ध्यान कभी इस ओर भी जाए
कुछ सच्चाइयाँ शायद वे भी हो सकती हैं
जो ऐसी ही किन्हीं
भूल-भुलइयों में से गुज़रती हुई
हमारे दिल-दिमाग पर दस्तक देने बार-बार आएँ।

~ मेरी माँ / अजित कुमार

उनकी दास्तान / अजित कुमार

जब उन्होंने पहली नौकरी पाई
हर दिन का सफ़र इतना लंबा था
साइकिल ज़रूरी हुई तय करने के लिए
पर उसे खरीदने के वास्ते पैसे नहीं थे।

एक मित्र से उधार मिला...
साल भर तक हर महीने सौ रुपये चुका
भरपाई हुई जिस दिन उसी रोज़ साइकिल चोरी गई-
‘अँधरऊ बटत जाँय, पँड़ऊ चबात जाँय’-
कहावत को सिद्ध करती।

तब से यह एक पैटर्न बन गया-
इधर वेतन मिला, उधर हूर्र...
फिर भी सबों की तरह उनके पास भी
कुछ-न-कुछ चीज़-बस्त इकट्ठी होती ही गई
बर्तन-भांडे, कपडे-लत्ते, काग़ज़-पत्तर, कुर्सी-मेज़, पंखे,कूलर…

और वह वक़्त भी आया, घर में सामान इतना बढा…
अकसर कहने लगीं पत्नी-
इतना कूड़ा इकटठा है, इसे फेंको,
अपने रहने के लिए थोड़ी जगह तो निकले।

हर बार वे अडंगा लगा देते-
'सबसे पहले इस कूड़े-- मुझ बूढे -को फेंको,
उसके बाद सब-कुछ को माचिस लगा देना।'

यही डायलाग उनके बीच सालो-साल चलता रहा,
इस हद तक पहुँचता कि एक रोज़
जब कबाड़ी घर की पुरानी पत्रिकायें ले जा रहा था,
वे बुरी तरह बिफर गए-
‘मुझे भी इनके साथ अपनी बोरी में बांधो ।‘

यह तमाशा कुछ पड़ोसियों ने भी देखा,
गोकि बीच-बचाव करने के लालच में जब वे नहीं पडे़
तो चारपाई और चादर ने ही बुढ़ऊ की खिसियाहट छिपाई ।

इस कथा का अन्त यों हुआ—
घरवालों की कुरेद से तंग आ
अंगड़-खंगड़ सब ठेले पर लाद
जब वे बडे़ बाज़ार में उसे बेचने को पहुँचे
और ढेर से कूपन मिले
जिनके बदले उसी बाज़ार से
मनपसंद चीज़ें ख़रीद लाने की सुविधा थी,
वे बेक़रार हो उठे-
हर ऐरे-गैरे के हाथ कुछ कूपन थमाते
और बाक़ियों को हवा में बिखराते,
वे हँसते हुए बोले— 'यही तो असली मुद्दा है-
जीवन भर में इकट्ठा हुए कचरे से
आख़िरकार जब छुट्टी मिली,
तो दूसरा और कचरा उठा अपने घर में ले जाऊँ,
इतना भोंदू मैं नहीं हूँ...

'नहीं चाहिए मुझे कुछ भी
कोई माल, असबाब, सामान- कुच्छ भी नहीं।'

उनकी यह बरबराहट सुन,पत्नी विलाप कर उठीं-
'इन्हें तो प्यार था अपनी हर चीज़ से,
सब कुछ सदा छाती से चिपकाए रखते थे...
अब देखो न, अचानक हो गए ऐसे निर्मोही
मानो किसी का कोई अर्थ नहीं।'...

तब छोटकू ने इस टीप मे अपना बन्द जोड़ा-
'दरअसल दादा जी
सामान के नहीं, सम्मान के भूखे हैं।'

इस पर राहत की साँस ले इकट्ठा घरवालों ने
जब शुरू किया कोरस
एक स्वर से-- 'हिप-हिप-हुर्रे...
'भापाजी, तुसी ग्रेट हो'...

बुजुर्गवार के होठों पर
महज उदास और फ़ीकी-सी मुस्कान ही नज़र आई-
उन सभी के उत्साह पर पानी फेरती ।

~ उनकी दास्तान / अजित कुमार

जिज्ञासाएँ / अजित कुमार

सुजाता के पास
मेरी ही क्यों, अपने सभी मरीज़ों की
जिज्ञासाओं के उत्तर थे...

जब मैंने कहा-
'पार्क में सैर के समय
उतनी भचक नहीं होती
जितनी घर में रहा करती है'
तुरंत उत्तर मिला-
'वहाँ लंबे डग भरने और
घर में छोटे क़दम रखने के कारण...
माँसपेशियों के खिंचाव में फ़र्क का असर
चाल पर भी तो पड़ेगा।'

तर्जनी के टेढ़ेपन में एक बुज़ुर्ग को उलझे देख
वह बोली-
'व्यायाम को बढ़ाइए... बार-बार इससे जूझिए,
वरना यह इसी तरह मुड़ी और अटकी
रह जाएगी...'

'झुका रहता हूँ मैं अपनी बाईं तरफ क्यों?'-
इसका सीधा जबाब था-
'लकवे के असर से शरीर का जो हिस्सा
कमज़ोर पड़ जाए,
उसमें ताक़त जब तक न आए
ऐसा होना स्वाभाविक है...।'

इससे पहले भी
देश में, विदेश में
कईयों ने शरीरोपचार की
अहम भूमिकाएँ निभाई थी मेरे वास्ते
कुछ फ़ायदा भी हुआ था...

लेकिन क्यों, क्या और कैसे की
तमाम गुत्थियाँ
जिस तरह सुजाता ने सुलझाईं
किसी और ने नहीं किया

शायद इसीलिए काफ़ी झिझक
और थोड़ी आत्मीयता के बाद
जब एक रोज़ मैं पूछ ही बैठा –
'तुम अकेली क्यों हो अब तक?'

और वह उलट कर बोली-
'क्यों? इतने तो हैं!
और आप भी!...
फिर बताइए,
क्या सबके बावजूद
अकेली हूँ मैं?'

बित्ते भर की उस छोकरी के
ऐसे प्रश्न के सम्मुख
निरुत्तर रह जाने के अलावा
मैं हकला ही तो सकता था...

पर मुझ जैसे खूसट वाग्मी से
वह भी साधे न सधा।

~ जिज्ञासाएँ / अजित कुमार

अपना काम / अजित कुमार

चीख़-चीख़ कर उन्होंने
दुनिया-भर की नींद हराम नहीं कर दी
नाक चढ़ा, भौं उठा      
सबको नीचे नहीं गिराया
पूरी सुबह के दौरान
एक बार भी मुँह नहीं फुलाया
कोप-भवन में जाने की ज़रूरत नहीं समझी...

सचमुच सुखद था यह देखना कि
औरतें कितनी मगन हो
अपने–अपने काम में लगी हैं...

गिनती भूल चुके बूढ़े को
वह चार के बाद पाँच का गुटका
रखना सिखा रही है
जबकि वह तीन आठ दो... कुछ भी
लगाकर मगन है...

दूसरी है व्यस्त लकवामारे की कमर
सीधी करने की कोशिश में;
साथ-साथ समझा भी रही है -
पाँव उठेंगे तभी तो चलकर जौनपुर
पहुँच सकोगे।
ज़रा बताओ तो सही- घर के लिए
गाड़ी कहाँ से पकड़ोगे?
और नाम सुनके ‘घर’ का
वह तनिक सिहर-सा उठा है
भले ही उसके पैरों में कोई जुंबिश नज़र नहीं आई अभी तक।

तीसरी ने थमाया है
मरीज़ की हथेली में
स्प्रिंग का शिकंजा-
ज़रूर ही चीजों पर उसकी पकड़
मज़बूत करने को:

"कसो, ढीला छोडो, धीरे-धीरे! बार–बार"...
सबक सीधा और साफ़ था ।

ऐसा करते उसे देख
जब मैंने भी चाहा--
टोकरी में धरी कनियों को
अपनी मुट्ठी में भरूँ...
वे फिसलती चली गईं
जैसे कि उंगलियों में से रेत।

मुझे हताश देख वह बोली-
"रिलैक्स! रखो धीरज...
वक़्त के साथ ही ठीक होगा,
जो भी होगा-
जैसे कि उसी के साथ इतना कुछ
बिगड़ता चला जाता है..."              

उसकी पलकों में सिमटे पूरे जीवन को
तो मैं नहीं बाँच पाया-
पर सरल हुआ देख सकना-
वह और उसकी टोली-
कितने मनोयोग से उन्हें नवजीवन देने में
लगी है
जिनमें में किसी को भी उन्होंने
अपनी कोख से नहीं जन्मा।

'कुछ दवा, कुछ दुआ'-यह तो
सबने पहले भी सुना था-
शरीरोपचार के मरीज़ों ने
उपचार के साथ
दुलार और पुचकार का भी मतलब
अब जाना...

बहुत दिनों बाद...
बल्कि उस क्षण तो यह लगा कि-
जीवन में पहली बार-
एक साथ, एक जगह
इतना अधिक सौंदर्य
मेरी नज़र में आ समाया…

जो मुमकिन है आगे कभी बार-बार
मन में भी कौंधे ।

~ अपना काम / अजित कुमार

छिंगुनी / अजित कुमार

मुट्ठी बांधने की असफल कोशिश
करते मरीज़ की छिंगुनी में
एक बार जब अचानक
ज़रा सी हरकत हुई...

तुम्हारा मुख-कमल खिल उठा
उत्साहित होकर तुम बोलीं-
लौटेगी ज़रूर, उंगलियों की ताक़त फिर लौटेगी।

लेकिन इस विडंबना से नियति की
तुम कहाँ तक लड़ सकती थीं कि
तनिक देर की उस जुंबिश के फिर से
लौटने का इंतज़ार बेहद लंबा होता गया।

~ छिंगुनी / अजित कुमार

और ही राग / अजित कुमार

टेबिल टाप पर तुम्हारी उँगलियाँ
पड़ी हुई थीं निर्जीव
और मैं प्रतीक्षा में थी  दम साधे
कि अब वे हरकत करेंगी-

धिनक धिनक धिन्... धिनक धिन्...
रच दोगे तुम एक अनोखा संगीत
जिसकी लय पर मैं थिरकने लगूंगी
धिनक धिनक्... धिन्... ता...

पर वे थीं कि हिले-डुले बिना
वैसी ही थमी रहीं उसी जगह अचल
गहरे मौन का या निष्प्रभ जीवन का
एक और ही राग अलापती हुईं
जिसमें डूबती–डूबती मैं जा पहुँची अतल में ।

~ और ही राग / अजित कुमार

हादसे / अजित कुमार

कई-कई हादसों से गुज़रने के बावजूद
अपने आप को सूरमा समझने के भरम ने
जब एक बार फिर
मुझे आकाश से उतारकर धरती पर लिटाया
सभी प्रियजन-स्वजन
इलाज की भाग-दौड़  में व्यस्त हो गए-
वहाँ परदेस में लुंज-पुंज हो
मैं बेबस पड़ा था...

अनायास मुझे याद आए
मुग़लों के अंतिम सम्राट बहादुरशाह ज़फर
इस ग़म में मुब्तिला कि-
‘दो गज़ ज़मीं भी न मिली कूए–यार में’—
मुझे भी आत्मदया की गुंजलक में समेटते...

लगभग तभी मुझे मिले आप,
जफ़र साहब– एक चमत्कार की तरह
जो केवल इतना भर न था
कि वे थे ‘ज़फ़र’
और आप भी वही , गोकि दिल्लीवाले नही...
घुल मिलकर एक हुईं वतन की,
लखनऊ की,
हमारी-आपकी भूली-बिसरी तमाम यादें।

अपने हाथों को बरत सकूँ
अपने पैरों पर चल पाऊँ-
यह तो आपके अलावा कई औरों ने भी
सिखाया है
पर भेंट उन महाशय से आपके ज़रिये ही
मुमकिन हुई,
जो अतल की गहराइयों में डूब चुकने
के बाद ही ऊपर उभरे थे,
सालों फुटपाथ ही उनका ओढ़ना-बिछौना रहा
तभी तो वे
‘आर. आई. पी.’ का मतलब
‘रेस्ट इन पीस’ के अलावा
‘रिटर्न इज़ पासिबिल’ हमारे समेत सभी को
बता पाए ।

यों तो जीवन में तनिक-सी भी
ठोकर खाने के बाद
मेरे भी मुँह से बहुतों की तरह
सहसा ‘हे राम!’ निकला है
पर उसका और गाँधी के  ‘हे राम’
का फ़र्क मैं कभी न जान पाता-
अगर आपके संग-साथ मेरे
जीवन का थोड़ा-सा सफ़र न बीता होता,
ज़फ़र साहब ।

लकवे से तिरछे पड़े मुँह और
अटपट हुई बोली को
सुधारते समय अपने से नफ़रत नहीं करना,
बल्कि उस को दुलराना आपने ही सिखाया

जिस क्षण आप कह रहे थे-
‘आज का दिन वह दिन है
जिसके बारे में तुम्हें शक था
यह तुम्हारे लिए कभी नहीं आएगा...’
नए सिरे से मुझे अनुभव हुआ
हम काफ़ी-कुछ भले ही कर पाएँ,
पर सब-कुछ तो अपने वश में नहीं होता-
और वह काफ़ी–कुछ भी कितना
अनिश्चित, अरूप है!

आत्म से अनात्म और अध्यात्म के
बीच जो भी अनाम या अबूझ
रिश्ते होते हों-
उनकी तरफ़ मेरा ध्यान ले जाने के लिए
आपका शुक्रिया, ज़फ़र साहब!

~ हादसे / अजित कुमार

दरियादिली / अजित कुमार

अपने घर में जो बाबूजी
रद्दी काग़ज़  की चिर्री–पुर्जी भी
सहेज के रखते थे–
इस्तरी के लिए गए कपड़ों
या दूधवाले का हिसाब दर्ज़ करने के लिए…

वे अस्पताल में दाखिल क्या हुए
कि टिशू पेपर के  रोल पर रोल
नाक-थूक-छींक-लार पोंछने के बहाने
कूडे़ की टोकरी में बहाते चले गए।
वहाँ अपने ठहरने की भरपूर क़ीमत
उन्हें वसूल करनी थी।

~ दरियादिली / अजित कुमार

तुम्हारा फैसला / अजित कुमार

दुनिया में कितना दुख–दर्द है?
जानना चाहते हो? –
किसी अस्पताल के जनरल वार्ड में जाओ ।
पहला ही चक्का तुम्हारी खुमारी मिटा देगा
दूसरा काफ़ी होगा कि तुम्हें होश में ले आए...
और इससे पहले कि तुम वहाँ से
जान बचाकर के भागो-
यह अनुभव कि तमाम लोग कितने साहस
और धीरज से झेलते हैं अपनी  तकलीफ़ें
शायद तुम्हें याद दिलाए कि  
ज़रा-ज़रा सी बात पर तुम किस कदर
चीखते–चिल्लाते रहे हो...
इसके बाद तो ख़ुद तुम ही तय करोगे शायद
कि शामिल होगे तुम किसमें?
नर्सिग ब्रिगेड में? या कर्सिग ब्रिगेड में?

~ तुम्हारा फैसला / अजित कुमार

ज़रूरत / अजित कुमार

मेरे साथ जुड़ी हैं कुछ मेरी ज़रूरतें
उनमें एक तुम हो।

चाहूँ या न चाहूँ:
जब ज़रूरत हो तुम,
तो तुम हो मुझ में
और पूरे अन्त तक रहोगी।

इससे यह सिद्ध कहाँ होता कि
मैं भी तुम्हारे लिए
उसी तरह ज़रूरी।

देखो न!
आदमी को हवा चाहिए ज़िन्दा रहने को
पर हवा तो
आदमी की अपेक्षा नहीं करती,
वह अपने आप जीवित है।

डाली पर खिला था एक फूल,
छुआ तितली ने,
रस लेकर उड़ गई।
पर
फूल वह तितली मय हो चुका था।

झरी पँखुरी एक: तितली।
फिर दूसरी भी: तितली।
फिर सबकी सब: तितली।
छूँछें वृन्त पर बाक़ी
बची ख़ुश्की जो: तितली।

कोमलता
अंतिम क्षण तक
यह बताकर ही गई:
'मैं वहाँ भी हूँ,
जहाँ मेरी कोई ज़रूरत नहीं।'

~ ज़रूरत / अजित कुमार

मात्सुओ बाशो का हाइकु

(1)
जापानी हाइकु

कारे एदा नि   
कारसु नो तोमारिकेरि   
आकि नो कुरे।

हिन्दी भावानुवाद

सूखी डाली पर्
काक एक एकाकी
साँझ पतझड़ की।

~  मात्सुओ बाशो का हाइकु

सोन-मछली / अज्ञेय

हम निहारते
रूप काँच के पीछे
हाँप रही है, मछली ।

रूप तृषा भी
(और काँच के पीछे)
हे जिजीविषा ।

क्योतो, 10 सितम्बर, 1957

~ सोन-मछली / अज्ञेय

धरा-व्योम / अज्ञेय

अंकुरित धरा से क्षमा
व्योम से झरी रुपहली करुणा
सरि, सागर, सोते-निर्झर-सा
उमड़े जीवन:
कहीं नहीं है मरना ।

नारा, जापान, 6 सितम्बर, 1957

~ धरा-व्योम / अज्ञेय

हे अमिताभ / अज्ञेय

हे अमिताभ!
नभ पूरित आलोक,
सुख से, सुरुचि से, रूप से, भरे ओक:
हे अवलोकित
हे हिरण्यनाभ!

क्योतो, जापान, 6 सितम्बर, 1957

~ हे अमिताभ / अज्ञेय

चिड़िया की कहानी / अज्ञेय

उड़ गई चिड़िया
काँपी, फिर
थिर हो गई पत्ती।

नयी दिल्ली, 1958

~ चिड़िया की कहानी / अज्ञेय

हाइकु / अज्ञेय

याद
(1)
कैसे कहूँ कि
किसकी याद आई?
चाहे तड़पा गई।
(2)
याद  उमस 
एकाएक घिरे बादल में
कौंध जगमगा गई।
(3)
भोर की प्रथम किरण फीकी:
अनजाने जागी हो
याद किसी की--

~ हाइकु / अज्ञेय

जीवन-छाया / अज्ञेय

पुल पर झुका खड़ा मैं देख रहा हूँ,
अपनी परछाहीं
सोते के निर्मल जल पर--
तल-पर, भीतर,
नीचे पथरीले-रेतीले थल पर:
अरे, उसे ये पल-पल
भेद-भेद जाती है
कितनी उज्ज्वल
रंगारंग मछलियाँ।

इलाहाबाद, 19 दिसम्बर, 1958

~ जीवन-छाया / अज्ञेय

सोन-मछली / अज्ञेय

हम निहारते
रूप काँच के पीछे
हाँप रही है, मछली ।

रूप तृषा भी
(और काँच के पीछे)
हे जिजीविषा ।

क्योतो, 10 सितम्बर, 1957

~ सोन-मछली / अज्ञेय

चुप-चाप / अज्ञेय

चुप-चाप  चुप-चाप
झरने का स्वर
हम में भर जाए
चुप-चाप  चुप-चाप
शरद की चांदनी
झील की लहरों पर तिर आए,
चुप-चाप  चुप चाप
जीवन का रहस्य
जो कहा न जाए, हमारी
ठहरी आँख में गहराए,
चुप-चाप  चुप-चाप
हम पुलकित विराट में डूबें
पर विराट हम में मिल जाए--

चुप-चाप   चुप-चाऽऽप...

~ चुप-चाप / अज्ञेय

पहाड़ी यात्रा / अज्ञेय

मेरे घोड़े की टाप
चौखटा जड़ती जाती है
आगे की नदी-व्योम, घाटी-पर्वत के आस-पास:
मैं एक चित्र में
लिखा गया-सा आगे बढ़ता जाता हूँ ।

~ पहाड़ी यात्रा / अज्ञेय

धूप / अज्ञेय

सूप-सूप भर
धूप-कनक
यह सूने नभ में गयी बिखर:
चौंधाया
बीन रहा है
उसे अकेला एक कुरर।

अल्मोड़ा
५ जून १९५८

~ धूप / अज्ञेय

नन्दा देवी-14 / अज्ञेय

निचले
हर शिखर पर
देवल:
ऊपर
निराकार
तुम
केवल...

बिनसर, नवम्बर, 1972

~ नन्दा देवी-14 / अज्ञेय

नन्दा देवी-13 / अज्ञेय

यूथ से निकल कर
घनी वनराजियों का आश्रय छोड़ कर
गजराज पर्वत की ओर दौड़ा है:
पर्वत चढ़ेगा।
कोई प्रयोजन नहीं है पर्वत पर
पर गजराज पर्वत चढ़ेगा।
पिछड़ता हुआ यूथ
बिछुड़ता हुआ मुड़ता हुआ
जान गया है कि गजराज
मृत्यु की ओर जा रहा है:
शिखर की ओर दौड़ने की प्रेरणा
मृत्यु की पुकार है।
उधर की दुर्निवार
गजराज बढ़ेगा।
यह नहीं कि यूथ जानता है
यह नहीं कि गजराज पहचानता है
कि मृत्यु क्या है: एक कुछ चरम है
एक कुछ शिखर है
एक कुछ दुर्निवार है
एक कुछ नियति है।
शिखर पर क्या है, गजराज?
...मृत्यु क्या मृत्यु ही है शिखर पर?
मृत्यु शिखर पर ही क्यों है?
क्या यहाँ नहीं है, नहीं हो सकती?
कहाँ नहीं है, जो शिखर पर हो?
मृत्यु ही शिखर है कदाचित्?
किस का शिखर?
क्या शिखर की ओर
दुर्निवार जाना ही प्रमाण है
कि शिखर बस एक आयाम है-
किस का आयाम?
तो शिखर से आगे क्या है?
त्वादृङ् नो भूथान्नचिकेता प्रष्टा...
तो क्या मैं शिकार की ओर दौड़ा हूँ
या शिखर से आगे?
किस का शिखर?
महतः परमव्यक्तम्
शिखर से आगे क्या है, गजराज?
अव्यक्तात्तपुरुषः परः
पांडव हिमालय गये थे: पांडव-
पर युधिष्ठिर कहाँ गये थे?
शिखर से आगे क्या है?
त्वादृङ् नो भूयान्नचिकेता प्रष्टा...
शिखर से आगे क्या है?
क्या...क्या...? है, है...
सा काष्ठा सा परा गति...
यूथ से निकल कर गजराज...

बिनसर, नवम्बर, 1972

~ नन्दा देवी-13 / अज्ञेय