अन्धकार में चली गयी है
काली रेखा दूर-दूर पार तक।
इसी लीक को थामे मैं बढ़ता आया हूँ
बार-बार द्वार तक: ठिठक गया हूँ वहाँ:
खोज यह दे सकती है मार तक।
चलने की है यही प्रतिज्ञा
पहुँच सकूँगा मैं प्रकाश से पारावार तक;
क्यों चलना यदि पथ है केवल
मेरे अन्धकार से सब के अन्धकार तक?
-या कि लाँघ कर ही उस को पहुँचा जावेगा
सब कुछ धारण करने वाली पारमिता करुणा तक-
निर्वैयक्तिक प्यार तक?
~ चक्रान्त शिला – 18 / अज्ञेय
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