यही, हाँ, यही- कि और कोई बची नहीं रही
उस मेरी मधु-मद भरी रात की निशानी:
एक यह ठीकरे हुआ प्याला कहता है-
जिसे चाहो तो मान लो कहानी।
और दे भी क्या सकता हूँ हवाला
उस रात का: या प्रमाण अपनी बात का?
उस धूपयुक्त कम्पहीन अपने ही ज्वलन के हुताशन के
ताप-शुभ्र केन्द्र-वृत्त में उस युग-साक्षात् का?
यों कहीं तो था लेखा: पर मैं ने जो दिया, जो पाया,
जो पिया, जो गिराया, जो ढाला, जो छलकाया,
जो नितारा, जो छाना,
जो उतारा, जो चढ़ाया
जो जोड़ा, जो तोड़ा, जो छोड़ा-
सब का जो कुछ हिसाब रहा, मैं ने देखा
कि उसी यज्ञ-ज्वाला में गिर गया।
और उसी क्षण मुझे लगा कि अरे, मैं तिर गया
-ठीक है, मेरा सिर फिर गया।
मैं अवाक् हूँ, अपलक हूँ।
मेरे पास और कुछ नहीं है
तुम भी यदि चाहो तो ठुकरा दो:
जानता हूँ कि मैं भी तो ठीकरा हूँ।
और मुझे कहने को क्या हो
जब अपने तईं खरा हूँ?
~ चक्रान्त शिला - 21 / अज्ञेय
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