धुन्ध से ढँकी हुई
कितनी गहरी वापिका तुम्हारी
कितनी लघु अंजली हमारी।
कुहरे में जहाँ-तहाँ लहराती-सी कोई
छाया जब-तब दिख जाती है,
उत्कंठा की ओक वही द्रव भर ओठों तक लाती है-
बिजली की जलती रेखा-सी
कंठ चीरती छाती तक खिंच जाती है।
फिर और प्यास तरसाती है, फिर दीठ
धुन्ध में फाँक खोजने को टकटकी लगाती है।
आतुरता हमें भुलाती है
कितनी लघु अंजली हमारी,
कितनी गहरी यह धुन्ध-ढँकी वापिका तुम्हारी।
फिर भरते हैं ओक,
लहर का वृत्त फैल कर हो जाता है ओझल,
इसी भाँति युग-कल्प शिलित कर गये हमारे पल-पल
-वापी को जो धुन्ध ढँके है, छा लेती है
गिरि-गह्वर भी अविरल।
किन्तु एक दिन खुल जाएगा
स्फटिक-मुकुर-सा निर्मल वापी का तल,
आशा का आग्रह हमें किये है बेकल-धुन्ध-ढँकी
कितनी गहरी वापिका तुम्हारी,
कितनी लघु अंजली हमारी।
किन्तु नहीं क्या यही धुन्ध है सदावर्त
जिस में नीरन्ध्र तुम्हारी करुणा
बँटती रहती है दिन-याम?
कभी झाँक जाने वाली छाया ही
अन्तिम भाषा-सम्भव-नाम?
करुणा धाम!
बीज-मन्त्र यह, सार-सूत्र यह, गहराई का एक यही परिमाण,
हमारा यही प्रणाम!
धुन्ध-ढँकी कितनी गहरी वापिका तुम्हारी-
लघु अंजली हमारी।
~ चक्रान्त शिला – 10 / अज्ञेय
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