सागर और धरा मिलते थे जहाँ
सन्धि-रेखा पर मैं बैठा था।
नहीं जानता क्यों सागर था मौन
क्यों धरा मुखर थी।
सन्धि-रेख पर बैठा मैं अनमना
देखता था सागर को किन्तु धरा को सुनता था।
सागर की लहरों में जो कुछ पढ़ता था
रेती की लहरों पर लिखता जाता था।
नहीं जानता क्यों
मैं बैठा था।
पर वह सब तब था जब दिन था।
फिर जब धरती से उठा हुआ सूरज
तपते-तपते हो जीर्ण गिरा सागर में-
तब सन्ध्या की तीखी किरण एक उठ
मुझे विद्ध करती सायक-सी
उसी सन्धि-रेखा से बाँध अचानक डूब गयी।
फिर धीरे-धीरे रात घेरती आयी, फैल गयी
फिर अन्धकार में मौन हो गयी धरा,
मुखर हो सागर गाने लगा गान।
मुझे और कुछ लखने-सुनने
पढ़ने-लिखने को नहीं रहा:
अपने भीतर गहरे में मैं ने पहचान लिया
है यही ठीक। सागर ही गाता रहे
धरा हो मौन, यही सम्यक् स्थिति है।
यद्यपि क्यों मैं नहीं जानता।
फिर मैं सपने से जाग गया
हाँ, जाग गया।
पर क्या यह जगा हुआ मैं
अब से युग-युग
उसी सन्धि-रेखा पर वैसा
किरण-विद्ध ही बँधा रहूँगा?
~ चक्रान्त शिला - 25 / अज्ञेय
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