Saturday 11 March 2017

चक्रान्त शिला – 11 / अज्ञेय

तू नहीं कहेगा?
मैं फिर भी सुन ही लूँगा।
किरण भोर की पहली भोलेपन से बतलावेगी,
झरना शिशु-सा अनजान उसे दुहरावेगा,

घोंघा गीली-पीली रेती पर धीरे-धीरे आँकेगा,
पत्तों का मर्मर कनबतियों में जहाँ-तहाँ फैलावेगा,
पंछी की तीखी कूक फरहरे-मढ़े शल्य-सी आसमान पर टाँकेगी,
फिर दिन सहसा खुल कर उस को सब पर प्रकटावेगा,

निर्मम प्रकाश से सब कुछ पर सुलझा सब कुछ लिख जावेगा।
मैं गुन लूँगा। तू नहीं कहेगा?
आस्था है, नहीं अनमना हूँगा तब-मैं सुन लूँगा।

~ चक्रान्त शिला – 11 / अज्ञेय

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