मैं कवि हूँ द्रष्टा, उन्मेष्टा,
सन्धाता, अर्थवाह, मैं कृतव्यय।
मैं सच लिखता हूँ:
लिख-लिख कर सब झूठा करता जाता हूँ।
तू काव्य: सदा-वेष्टित यथार्थ
चिर-तनित, भारहीन, गुरु,
अव्यय। तू छलता है
पर हर छल में
तू और विशद, अभ्रान्त,
अनूठा होता जाता है।
~ चक्रान्त शिला – 16 / अज्ञेय
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