Wednesday 8 March 2017

पक गई खेती / अज्ञेय

वैर की परनालियों में हँस-हँस के
हमने सींची जो राजनीति की रेती
उसमें आज बह रही खूँ की नदियाँ हैं
कल ही जिसमें ख़ाक-मिट्टी कह के हमने थूका था
घृणा की आज उसमें पक गई खेती
फ़सल कटने को अगली सर्दियाँ हैं।

मेरठ, 15 अक्टूबर, 1947

~ पक गई खेती / अज्ञेय

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