Tuesday, 7 March 2017

क्वाँर की बयार / अज्ञेय

 इतराया यह और ज्वार का
क्वाँर की बयार चली,
शशि गगन पार हँसे न हँसे--
शेफ़ाली आँसू ढार चली!
नभ में रवहीन दीन--
बगुलों की डार चली;
मन की सब अनकही रही--
पर मैं बात हार चली!

इलाहाबाद, अक्टूबर, 1948

~ क्वाँर की बयार / अज्ञेय

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