Tuesday, 7 March 2017

~ बेचता यूँ ही नहीं है आदमी ईमान को / अदम गोंडवी

बेचता यूँ ही नहीं है आदमी ईमान को,
 भूख ले जाती है ऐसे मोड़ पर इंसान को ।

 सब्र की इक हद भी होती है तवज्जो दीजिए,
 गर्म रक्खें कब तलक नारों से दस्तरख़्वान को ।

 शबनमी होंठों की गर्मी दे न पाएगी सुकून,
 पेट के भूगोल में उलझे हुए इंसान को ।

 पार कर पाएगी ये कहना मुकम्मल भूल है,
 इस अहद की सभ्यता नफ़रत के रेगिस्तान को ।

~ बेचता यूँ ही नहीं है आदमी ईमान को / अदम गोंडवी

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